ज्योति शेलर, मुंबई मिरर
कई सालों से गुटखा बनाने का कारोबार चला रहे 52 साल के विजय तिवारी खुद ही मुंह के कैंसर का शिकार हो गए। मुंह के कैंसर से जूझते हुए छह कीमोथेरेपी और 36 चरणों के रेडिऐशन के दर्दनाक अऩुभव के बाद तिवारी ने अपने 'फलते-फूलते' कारोबार को बंद करने का फैसला किया।
तिवारी का कहना है कि गुटखे की मैन्युफैक्चरिंग के दौरान केसर, इलायची आदि के फ्लेवर के बजाय सस्ते कैमिकल का इस्तेमाल किया जाता है। गुटखे की क्वालिटी जांच के साथ तिवारी इसे खाने के भी लती बन गए और कैंसर का शिकार हो गए। 2011 में जब तिवारी को कैंसर होने का पता चला तो उन्होंने गुटखा फ्रैगरेंस बनाने के अपने बिजनस को ही जिम्मेवार मानते हुए इसे बंद करने का निर्णय लिया।
तिवारी का कहना है कि गुटखा बिजनस चलाने वाले लोगों को 'धोखा करना ही पड़ता है।' तिवारी का कहना है, 'आप क्या सोचते हैं कि असली केसर फ्लेवर वाला गुटखा आपको केवल एक रुपए में मिल जाएगा।?' तिवारी बताते हैं, 'एक किलो केसर की कीमत 1.6 लाख रुपए है लेकिन इसकी जगह जिस कैमिकल फ्लेवर का इस्तेमाल किया जा सकता है उसकी कीमत महज 2300 रुपए प्रति किलोग्राम है। वहीं, इलायची का मूल्य 19000 रुपए प्रति किलोग्राम है, जबकि इसका फ्लेवर 1500 रुपए में ही मिल जाएगा। 12 लाख रुपए कीमत वाले रूह गुलाब के बजाय 25 हजार रुपए के कैमिकल फ्लेवर से काम चलाया जा सकता है। असली और नकली चीजों के दाम में इतना बड़ा अंतर होता है इसलिए कोई भी गुटखा मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी असल फ्रैगरेंस का इस्तेमाल नहीं करती है।'
तिवारी ने अपने उत्पाद को चैक करने के मकसद से गुटखा खाना शुरू किया था। थोड़े ही दिन बाद वह गुटखा खाने के लती हो गए और रोजाना करीब 25 पैकेट खाने लग गए। कैंसर के कारण हुई सर्जरी से अब तिवारी जी का चेहरा भी बदल चुका है। अब उन्होंने इस बात का फैसला किया है कि वह गुटखा इंडस्ट्री का हिस्सा नहीं बने रहेंगे। तिवारी ने अब गुटखा फ्रैगरेंस के बदले इत्र बनाने का बिजनस शुरू किया है।
तिवारी का कहना है कि गुटखा बनाने वाली कंपनियां असल चीजों के बजाय सस्ते कैमिकल इस्तेमाल करती हैं। तिवारी बताते हैं कि मैन्यूफैक्चररर्स गुटखे के फ्लेवर को ठीक करने के लिए मैग्नेशियम कार्बोनेट और गैंबियर (कत्था आदि के बजाय) का इस्तेमाल करते हैं।
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च की एक रिपोर्ट ने यह खुलासा किया था कि पान मसाला, गुटखा, खैनी और माउथ फ्रैशनर्स आदि में फ्लेवर के लिए कई नुकसानदायक कैमिकल्स को मिलाया जा रहा है।
ज्योति शेलर, मुंबई मिरर
कई सालों से गुटखा बनाने का कारोबार चला रहे 52 साल के विजय तिवारी खुद ही मुंह के कैंसर का शिकार हो गए। मुंह के कैंसर से जूझते हुए छह कीमोथेरेपी और 36 चरणों के रेडिऐशन के दर्दनाक अऩुभव के बाद तिवारी ने अपने 'फलते-फूलते' कारोबार को बंद करने का फैसला किया।
तिवारी का कहना है कि गुटखे की मैन्युफैक्चरिंग के दौरान केसर, इलायची आदि के फ्लेवर के बजाय सस्ते कैमिकल का इस्तेमाल किया जाता है। गुटखे की क्वालिटी जांच के साथ तिवारी इसे खाने के भी लती बन गए और कैंसर का शिकार हो गए। 2011 में जब तिवारी को कैंसर होने का पता चला तो उन्होंने गुटखा फ्रैगरेंस बनाने के अपने बिजनस को ही जिम्मेवार मानते हुए इसे बंद करने का निर्णय लिया।
तिवारी का कहना है कि गुटखा बिजनस चलाने वाले लोगों को 'धोखा करना ही पड़ता है।' तिवारी का कहना है, 'आप क्या सोचते हैं कि असली केसर फ्लेवर वाला गुटखा आपको केवल एक रुपए में मिल जाएगा।?' तिवारी बताते हैं, 'एक किलो केसर की कीमत 1.6 लाख रुपए है लेकिन इसकी जगह जिस कैमिकल फ्लेवर का इस्तेमाल किया जा सकता है उसकी कीमत महज 2300 रुपए प्रति किलोग्राम है। वहीं, इलायची का मूल्य 19000 रुपए प्रति किलोग्राम है, जबकि इसका फ्लेवर 1500 रुपए में ही मिल जाएगा। 12 लाख रुपए कीमत वाले रूह गुलाब के बजाय 25 हजार रुपए के कैमिकल फ्लेवर से काम चलाया जा सकता है। असली और नकली चीजों के दाम में इतना बड़ा अंतर होता है इसलिए कोई भी गुटखा मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी असल फ्रैगरेंस का इस्तेमाल नहीं करती है।'
तिवारी ने अपने उत्पाद को चैक करने के मकसद से गुटखा खाना शुरू किया था। थोड़े ही दिन बाद वह गुटखा खाने के लती हो गए और रोजाना करीब 25 पैकेट खाने लग गए। कैंसर के कारण हुई सर्जरी से अब तिवारी जी का चेहरा भी बदल चुका है। अब उन्होंने इस बात का फैसला किया है कि वह गुटखा इंडस्ट्री का हिस्सा नहीं बने रहेंगे। तिवारी ने अब गुटखा फ्रैगरेंस के बदले इत्र बनाने का बिजनस शुरू किया है।
तिवारी का कहना है कि गुटखा बनाने वाली कंपनियां असल चीजों के बजाय सस्ते कैमिकल इस्तेमाल करती हैं। तिवारी बताते हैं कि मैन्यूफैक्चररर्स गुटखे के फ्लेवर को ठीक करने के लिए मैग्नेशियम कार्बोनेट और गैंबियर (कत्था आदि के बजाय) का इस्तेमाल करते हैं।
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च की एक रिपोर्ट ने यह खुलासा किया था कि पान मसाला, गुटखा, खैनी और माउथ फ्रैशनर्स आदि में फ्लेवर के लिए कई नुकसानदायक कैमिकल्स को मिलाया जा रहा है।
कई सालों से गुटखा बनाने का कारोबार चला रहे 52 साल के विजय तिवारी खुद ही मुंह के कैंसर का शिकार हो गए। मुंह के कैंसर से जूझते हुए छह कीमोथेरेपी और 36 चरणों के रेडिऐशन के दर्दनाक अऩुभव के बाद तिवारी ने अपने 'फलते-फूलते' कारोबार को बंद करने का फैसला किया।
तिवारी का कहना है कि गुटखे की मैन्युफैक्चरिंग के दौरान केसर, इलायची आदि के फ्लेवर के बजाय सस्ते कैमिकल का इस्तेमाल किया जाता है। गुटखे की क्वालिटी जांच के साथ तिवारी इसे खाने के भी लती बन गए और कैंसर का शिकार हो गए। 2011 में जब तिवारी को कैंसर होने का पता चला तो उन्होंने गुटखा फ्रैगरेंस बनाने के अपने बिजनस को ही जिम्मेवार मानते हुए इसे बंद करने का निर्णय लिया।
तिवारी ने अपने उत्पाद को चैक करने के मकसद से गुटखा खाना शुरू किया था। थोड़े ही दिन बाद वह गुटखा खाने के लती हो गए और रोजाना करीब 25 पैकेट खाने लग गए। कैंसर के कारण हुई सर्जरी से अब तिवारी जी का चेहरा भी बदल चुका है। अब उन्होंने इस बात का फैसला किया है कि वह गुटखा इंडस्ट्री का हिस्सा नहीं बने रहेंगे। तिवारी ने अब गुटखा फ्रैगरेंस के बदले इत्र बनाने का बिजनस शुरू किया है।
तिवारी का कहना है कि गुटखा बनाने वाली कंपनियां असल चीजों के बजाय सस्ते कैमिकल इस्तेमाल करती हैं। तिवारी बताते हैं कि मैन्यूफैक्चररर्स गुटखे के फ्लेवर को ठीक करने के लिए मैग्नेशियम कार्बोनेट और गैंबियर (कत्था आदि के बजाय) का इस्तेमाल करते हैं।
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च की एक रिपोर्ट ने यह खुलासा किया था कि पान मसाला, गुटखा, खैनी और माउथ फ्रैशनर्स आदि में फ्लेवर के लिए कई नुकसानदायक कैमिकल्स को मिलाया जा रहा है।
No comments:
Post a Comment