अगर हम बॉलिवुड मेकर्स के बरसों से पसंदीदा सब्जेक्ट पर बात करें तो यकीनन पिछले कई दशक से मेकर्स करप्ट पुलिस अफसर, सरकारी दफ्तरों में लगातार बढ़ रहे करप्शन के चलते हर सरकारी ऑफिस में लगातार बढ़ती करप्ट बाबूओं और अफसर को पब्लिक के बीच बेनकाब करके कॉमन मैन की वाहवाही और सिनेमाहॉल में बैठी फ्रंट और मिडिल क्लास दर्शकों की तालियां इस सब्जेक्ट को हिट कराती रही हैं। इस फिल्म में भी स्टार्ट टू लॉस्ट यही कहानी नजर आती है कि वोट और करप्शन की राजनीति ने पूरे सिस्टम को गंदा किया हुआ है।
इस फिल्म में भी कभी रंग दे बसंती जैसी बेहतरीन फिल्म लिख चुके डायरेक्टर रेंसिल डिसिल्वा ने एकबार फिर अन्याय और शोषण के खिलाफ बड़े शहरों की यंग जेनरेशन द्वारा उंगली गैंग बनाने की कहानी लिखी है, जो बेशक कानून को हाथ में लेकर ऐसे समाज विरोधी तत्वों को सबक सिखाते हैं। दरअसल, इस गैंग की सोच बस इतनी है कि अगर घी सीधी उंगली से नहीं निकल पा रहा है तो उंगली टेढ़ी करनी होती है, लेकिन इसके विपरीत यह गैंग बीच का ऐसा रास्ता चुनता है जो पुलिस, प्रशासन को विलेन और इस उंगली गैंग को हीरो बना देता है। बेशक इससे पहले भी सिस्टम के खिलाफ फिल्में आई हैं, इसी कड़ी में अब उंगली का नंबर है।
कहानी: अभय (रणदीप हुड्डा), माया (कंगना रणावत), गोटी (नील भूपलम) और कलीम (अंगद बेदी) 4 दोस्त हैं, जो कंगना के भाई अरुणादेय सिंह के जिम में नियमित जाते हैं। यहीं इन चारों के बीच अच्छी दोस्ती हो जाती है। इन 4 दोस्तों का यह गैंग उस वक्त उंगली गैंग बनाने का फैसला करता है, जब माया का भाई एक सीनियर सिटिजन के साथ बीच रोड में हो रही रोडरेज की घटना का विरोध करता है। तब सत्ता और पुलिस के आला अफसरों तक अपनी पहुंच रखने वाले युवक माया के भाई पर जानलेवा हमला करते हैं। इस अटैक के बाद माया का भाई कोमा में चला जाता है। जब इन चारों दोस्तों को कहीं से भी इंसाफ नहीं मिलता, तब वह आम नागरिकों को इंसाफ दिलाने के मकसद से उंगली गैंग बनाते हैं। शहर में तेजी से लोकप्रिय हो रहे इस गैंग को पकड़ने की जिम्मेदारी ईमानदार पुलिस ऑफिसर काले (संजय दत्त) को दी जाती है, काले इस मिशन में मुंबई पुलिस के कई विभागों में फ्लॉप साबित रहे यह इंस्पेक्टर निखिल (इमरान हाशमी) को अपने साथ लेता है। निखिल अपनी अलग स्टाइल में इस गैंग के काम करने के तरीकों से इस गैंग तक पहुचंता है। हालात कुछ ऐसे बनते है निखिल को गैंग को पकड़ने का चांस कई बार मिलता है, लेकिन गैंग का मकसद समझने के बाद वह भी उनके गैंग में शामिल हो जाता है।
ऐक्टिंग: करीब पौने दो घंटे की इस फिल्म को देखते वक्त ऐसा लगता है कि फिल्म के ज्यादातर कलाकारों ने कैमरे के सामने अपना शॉट देकर ड्यूटी निभा भर दी हो। इमरान, रणदीप हुड्डा और कंगना की बेहद कमजोर ऐक्टिंग देखकर यही लगता है जैसे इनसे डायरेक्टर ने जबरन काम कराया हो। ना जाने क्यों, डायरेक्टर इमरान हाशमी के स्टारडम वाली इमेज का सही इस्तेमाल नहीं कर पाए। ठीक यही हाल संजय दत्त का भी रहा। कंगना के छोटे से किरदार को देखकर ऐसा लगता है जैसे डायरेक्टर ने उनके किरदार को फटाफट पूरा कराने के लिए उनके किरदार पर मेहनत नहीं की। टीवी चैनल की रिर्पोटर बनी नेहा धूपिया अपने रोल में जंची हैं। गोटी (नील भूपलम) और कलीम (अंगद बेदी) ने भी बस अपने किरदार को निभा भर दिया।
डायरेक्शन: इस फिल्म को देखने के बाद यकीन नहीं आता कि रेंसिल ने ही रंग दे बसंती जैसी बेहतरीन फिल्म और 24 जैसा लोकप्रिय सीरियल लिखा है। इस बार उन्होंने अपने फैंस को यकीनन निराश किया है। स्क्रिप्ट में कई कमजोर दृश्य हैं। बतौर डायरेक्टर उन्होंने कई ऐसे सीन शूट किए हैं जो ड्रामा स्टाइल लगते है। बेशक सब्जेक्ट अच्छा है और फिल्म में कॉमन मैन के भ्रष्ट सिस्टम से यकीन उठने की बात को उठाने की कोशिश को बतौर डायरेक्टर डिसिल्वा जोरदार ढंग से नहीं उठा पाए।
संगीत: इतनी छोटी सी फिल्म में ठूंसे गए गाने कहानी की रही-सही रफ्तार भी कम करने का काम करते हैं। हां, श्रृद्धा कपूर पर शूट आइटम नंबर अच्छा बन पड़ा है।
क्यों देखें: यकीनन ऐसे सब्जेक्ट पर बनी कई फिल्में आप पहले देख चुके होंगे। ऐसे में हम आपको इस फिल्म को देखने की सिफारिश नहीं करेंगे। हां, अगर संजय, इमरान और कंगना के फैंन हैं तो अपने चहेते स्टार्स की अनचाही ऐक्टिंग देखने जा सकते है
इस फिल्म में भी कभी रंग दे बसंती जैसी बेहतरीन फिल्म लिख चुके डायरेक्टर रेंसिल डिसिल्वा ने एकबार फिर अन्याय और शोषण के खिलाफ बड़े शहरों की यंग जेनरेशन द्वारा उंगली गैंग बनाने की कहानी लिखी है, जो बेशक कानून को हाथ में लेकर ऐसे समाज विरोधी तत्वों को सबक सिखाते हैं। दरअसल, इस गैंग की सोच बस इतनी है कि अगर घी सीधी उंगली से नहीं निकल पा रहा है तो उंगली टेढ़ी करनी होती है, लेकिन इसके विपरीत यह गैंग बीच का ऐसा रास्ता चुनता है जो पुलिस, प्रशासन को विलेन और इस उंगली गैंग को हीरो बना देता है। बेशक इससे पहले भी सिस्टम के खिलाफ फिल्में आई हैं, इसी कड़ी में अब उंगली का नंबर है।
कहानी: अभय (रणदीप हुड्डा), माया (कंगना रणावत), गोटी (नील भूपलम) और कलीम (अंगद बेदी) 4 दोस्त हैं, जो कंगना के भाई अरुणादेय सिंह के जिम में नियमित जाते हैं। यहीं इन चारों के बीच अच्छी दोस्ती हो जाती है। इन 4 दोस्तों का यह गैंग उस वक्त उंगली गैंग बनाने का फैसला करता है, जब माया का भाई एक सीनियर सिटिजन के साथ बीच रोड में हो रही रोडरेज की घटना का विरोध करता है। तब सत्ता और पुलिस के आला अफसरों तक अपनी पहुंच रखने वाले युवक माया के भाई पर जानलेवा हमला करते हैं। इस अटैक के बाद माया का भाई कोमा में चला जाता है। जब इन चारों दोस्तों को कहीं से भी इंसाफ नहीं मिलता, तब वह आम नागरिकों को इंसाफ दिलाने के मकसद से उंगली गैंग बनाते हैं। शहर में तेजी से लोकप्रिय हो रहे इस गैंग को पकड़ने की जिम्मेदारी ईमानदार पुलिस ऑफिसर काले (संजय दत्त) को दी जाती है, काले इस मिशन में मुंबई पुलिस के कई विभागों में फ्लॉप साबित रहे यह इंस्पेक्टर निखिल (इमरान हाशमी) को अपने साथ लेता है। निखिल अपनी अलग स्टाइल में इस गैंग के काम करने के तरीकों से इस गैंग तक पहुचंता है। हालात कुछ ऐसे बनते है निखिल को गैंग को पकड़ने का चांस कई बार मिलता है, लेकिन गैंग का मकसद समझने के बाद वह भी उनके गैंग में शामिल हो जाता है।
ऐक्टिंग: करीब पौने दो घंटे की इस फिल्म को देखते वक्त ऐसा लगता है कि फिल्म के ज्यादातर कलाकारों ने कैमरे के सामने अपना शॉट देकर ड्यूटी निभा भर दी हो। इमरान, रणदीप हुड्डा और कंगना की बेहद कमजोर ऐक्टिंग देखकर यही लगता है जैसे इनसे डायरेक्टर ने जबरन काम कराया हो। ना जाने क्यों, डायरेक्टर इमरान हाशमी के स्टारडम वाली इमेज का सही इस्तेमाल नहीं कर पाए। ठीक यही हाल संजय दत्त का भी रहा। कंगना के छोटे से किरदार को देखकर ऐसा लगता है जैसे डायरेक्टर ने उनके किरदार को फटाफट पूरा कराने के लिए उनके किरदार पर मेहनत नहीं की। टीवी चैनल की रिर्पोटर बनी नेहा धूपिया अपने रोल में जंची हैं। गोटी (नील भूपलम) और कलीम (अंगद बेदी) ने भी बस अपने किरदार को निभा भर दिया।
डायरेक्शन: इस फिल्म को देखने के बाद यकीन नहीं आता कि रेंसिल ने ही रंग दे बसंती जैसी बेहतरीन फिल्म और 24 जैसा लोकप्रिय सीरियल लिखा है। इस बार उन्होंने अपने फैंस को यकीनन निराश किया है। स्क्रिप्ट में कई कमजोर दृश्य हैं। बतौर डायरेक्टर उन्होंने कई ऐसे सीन शूट किए हैं जो ड्रामा स्टाइल लगते है। बेशक सब्जेक्ट अच्छा है और फिल्म में कॉमन मैन के भ्रष्ट सिस्टम से यकीन उठने की बात को उठाने की कोशिश को बतौर डायरेक्टर डिसिल्वा जोरदार ढंग से नहीं उठा पाए।
संगीत: इतनी छोटी सी फिल्म में ठूंसे गए गाने कहानी की रही-सही रफ्तार भी कम करने का काम करते हैं। हां, श्रृद्धा कपूर पर शूट आइटम नंबर अच्छा बन पड़ा है।
क्यों देखें: यकीनन ऐसे सब्जेक्ट पर बनी कई फिल्में आप पहले देख चुके होंगे। ऐसे में हम आपको इस फिल्म को देखने की सिफारिश नहीं करेंगे। हां, अगर संजय, इमरान और कंगना के फैंन हैं तो अपने चहेते स्टार्स की अनचाही ऐक्टिंग देखने जा सकते है
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